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अमृत मंथन

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1984
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5436
आईएसबीएन :0000

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गुरुदत्त का श्रेष्ठ उपन्यास...

Amrit Manthan a hindi book by Gurudutt - अमृत मंथन - गुरुदत्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर यह उपन्यास लिखा गया है।
वैसे तो श्रीराम के जीवन पर सैकड़ों ही नहीं, सहस्रों रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं, इस पर भी जैसा कि कहते हैं।

हरि अनन्त हरि कथा अनन्त।

भगवान राम परमेश्वर का साक्षात अवतार थे अथवा नहीं, इस विषय पर कुछ न कहते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य सम्पन्न किया वह उनको एक अतिश्रेष्ठ मानव के पद पर बैठा देता है। लाखों, करोड़ों लोगों के आदर्श पुरुष तो वह हैं ही। और केवल भारतवर्ष में ही नहीं बीसियों अन्य देशों में उनको इस रूप में पूजा जाता है। राम कथा किसी न किसी रूप में कई देशों में प्रचलित है।
और तो और तथाकथित प्रगतिशील लेखक जो वैचारिक दृष्टि से कम्युनिस्ट ही कहे जा सकते हैं, वे आर्यों को दुष्ट, शराबी, अनाचारी, दशरथ को लम्पट, दुराचारी लिखते हैं परन्तु राम की श्रेष्ठता को नकार नहीं सके।
राम में क्या विशेषता थी, पौराणिक कथा ‘अमृत मंथन’ का क्या महत्व था, राम ने अपने जीवन में क्या कुछ किया, प्रस्तुत उपन्यास में इसी पर प्रकाश डाला गया है।

यह एक तथ्य है कि चाहे सतयुग हो, त्रेता-द्वापर हो अथवा कलियुग हो, मनुष्य की दुर्बलता उसमें उपस्थित पाँच विकार—काम, क्रोध, लोभ मोह तथा अहंकार होती है और इन विकारों के चारों ओर ही मनुष्य का जीवन घूमता है। इन विकारों पर नियंत्रण यदि उसका आत्मा प्रबल है तो उसके द्वारा होनी चाहिए अन्यथा राजदण्ड का निर्माण इसी के लिए हुआ है। परन्तु जब ये विकार किसी शक्तिशाली, प्रभावी राजपुरुष में प्रबल हो जाते हैं जो देश में तथा संसार में अशान्ति का विस्तार होने लगता है और तब श्रेष्ठ सत् पुरुषों को उसके विनाश का आयोजन करना पड़ता है और यही इतिहास बन जाता है। इन्हीं विकारों ने देवासुर संग्राम का बीज बोया, राणव तथा राक्षसों को अनाचार फैलाने की प्रेरणा दी, महाभारत रचा तथा आज के युग में भी देश के भीतर गृहयुद्ध तथा देशों में परस्पर युद्ध करा रहे हैं।

इन विकारों के प्रभाव में दुष्ट पुरुष सदा विद्यमान रहे हैं और आज भी प्रभावी हो रहे हैं। श्रेष्ठ जनों को संगठित होकर उनके विरुद्ध युद्घ के लिए तत्पर होना होगा। जो लोग, देश तथा जाति इस प्रकार के धार्मिक युद्धों से घबराती है वह पतन को ही प्राप्त होती है। दुष्टों के प्रभावी हो जाने से पूर्व ही जब तक उनके विनाश का आयोजन नहीं किया जाता, तब तक युद्धों को रोका नहीं जा सकता और ऐसे युद्धों के लिए सदा तत्पर रहना ही देश में शान्ति स्थिर रख सकता है।

प्रथम परिच्छेद

‘‘कितने काल के उपरान्त आये हो अमृत?’’ एक बयासी वर्ष के वृद्ध ने सामने बैठे युवक से पूछा। युवक वृद्ध का पौत्र था और उसकी पत्नी भी उसके समीप ही बैठी थी। युवक की माता सुन्दरी उस दम्पत्ति के पीछे खड़ी बातें सुन रही थी।
युवक का नाम अमृतलाल था। उसने उत्तर में कहा, ‘‘बाबा! पूरे ढाई वर्ष के उपरान्त ही यहाँ कुछ दिन रहने आया हूँ। बीच में एक बार विवाह करने आया था, परन्तु उन दिनों विवाह की भागदौड़ में ही समय व्यतीत हो गया था। अब निश्चिन्त हो एक महीने का अवकाश लेकर आया हूँ। विवाह हुए भी डेढ़ वर्ष व्यतीत हो चुका है।’’
‘‘और बहू ! तुम सुनाओ, ठीक हो ?’’
‘‘हाँ बाबा !’’ युवती ने आँखें नीचे किये हुए कह दिया।
‘‘पर तुम तो अकेली आयी हो ? डेढ़ वर्ष तक पति के पास रहते हुए क्या करती रहती थीं ?’’
‘‘आपके पुत्र की सेवा ही करती रही।’’
‘‘उस सेवा का कुछ फल नहीं मिला ?’’

महिमा इसका अर्थ समझती थी, परन्तु लज्जावश लाल मुख किये और आँखें झुकाये मौन बैठी रही। उत्तर देते हुए अमृत ने ही कहा, ‘‘बाबा ! आज के युग में सन्तान की इच्छा नहीं रही।’’
‘‘ओह !’’ वृद्ध के मुख से निकल गया, ‘‘तो तुम भी अज्ञान के अन्धकार में पड़े हुए अन्धकार का विस्तार कर रहे हो ?’’
‘‘वह कैसे बाबा ?’’
‘‘तो समझे नहीं ? अच्छा, यह बताओ, क्या वेतन लेते हो ?’’
‘‘ग्यारह सौ रुपया प्रति मास।’’
‘‘और कितना पढ़े हो ?’’
‘‘सिविल इन्जीनियरिंग की परीक्षा पास की है।’’
‘तुम सन्तान उत्पन्न करने से डरते हो। यह काम तुमने अनपढ़, मूर्खों और साधन-विहीनों के लिए सुरक्षित कर रखा है। अर्थात् मूर्ख साधन-विहीनों की मूर्ख सन्तान के लिये संसार सुरक्षित कर रहे हो।’’

अमृत अभी इस कथन का अर्थ समझ ही रहा था कि उसकी माँ ने कह दिया, ‘‘अमृत ! अब चलो। इस बात को एकान्त में बैठकर विचार करना। चलो, सामान अपने कमरे में रख थोड़ा आराम कर लो। तब तक भोजन का समय हो जायेगा।’’
अमृतलाल उठ पड़ा। महिमा अभी इस सबका अर्थ समझना चाहती थी, परन्तु सास के दोबारा कहने पर वह भी उठी और पति के साथ प्रथम मंजिल पर अपने कमरे में चली गयी।
अमृत और महिमा का विवाह हुए डेढ़ वर्ष हो चुका था। दोनों की भेंट चण्डीगढ़ में एक पुस्तकों की दुकान पर हुई थी। महिमा की बी.ए. की परीक्षा हो रही थी और वह एक पुस्तक जिसमें से कुछ पृष्ठ लापता थे, वापस करने आयी थी। दुकानदार वापस नहीं कर रहा था कि तभी अमृतलाल, जो उन दिनों चण्डीगढ़ कॉरपोरेशन में चीफ इन्जीनियरिंग था, वहाँ आ गया। उसे लड़की की युक्ति ठीक प्रतीत हुई थी, इसलिए वह लड़की की सिफारिश करने लगा। इस पर दुकानदार ने कह दिया, ‘‘श्रीमान ! आप नहीं जानते। ये विद्यार्थी ऐसा ही करते हैं। पुस्तकें लीं, पढ़ीं और फिर किसी बहाने से वापस करने आ गये।’’

लड़की सब विद्यार्थियों को बेईमान कहा जाता सुन क्रोध से लाल हो गयी और पुस्तक दुकान के काउण्टर पर पटक यही कहती हुई चल पड़ी, ‘‘बहुत बेईमान हो तुम !’’ यह कहते समय उसकी आँखों से आँसू छलक उठे थे।
अमृतलाल ने लड़की को बुलाकर पूछा, ‘‘कौन सी पुस्तक है और कितने दाम की है ?’’
इसका उत्तर दुकानदार ने दिया और अमृत ने कहा, ‘‘पुस्तक की एक नयी प्रति इन्हें निकाल दीजिये। मूल्य मैं दे दूँगा।’’
लड़की ने कह दिया, ‘‘रहने दीजिये। मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं।’’
‘‘तो बाद में दे देना।’’
‘‘कहाँ दे दूँगी। मैं तो कल अपना अन्तिम पर्चा देकर घर चली जाऊँगी।’’
‘‘कहाँ की रहने वाली हैं ?’’
‘‘बिलासपुर की।’’
‘‘मैं भी वहीं रहता हूँ। मैं ले लूँगा।’’

‘‘तब ठीक है। मैं पण्डित भृगुदत्त रिटायर्ड तहसीलदार की लड़की हूँ। आप अपना पता बता दीजिये। मैं पैसे वहाँ भेज दूँगी।’’
‘‘मैं पण्डितजी को जानता हूँ। उनसे ले लूँगा।’’
अमृतलाल को यह लड़की अपनी पत्नी बनाने योग्य प्रतीत हुई। वह उसे सिंह-वाहिनी दुर्गा की मूर्ति जैसी ही दिखाई दी थी।
इस भेंट के परिणाम में ही दोनों का विवाह हो गया। लड़की बिलासपुर पहुँची तो उसने अपने पिता को बताया, ‘‘एक पुस्तक के लिए पैसे कम पड़ गये थे और एक सज्जन ने जो कि इस नगर के निवासी हैं, पच्चीस रुपये की पुस्तक खरीद दी थी। वे कहते थे कि पैसे आपसे प्राप्त कर लेंगे। वे आपको जानते हैं।’’

भृगुदत्त ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘उस बिलासपुर निवासी के पिता पैसे लेने आज ही आये थे और अपने पैसे ब्याज सहित माँग गये हैं। परन्तु ब्याज बहुत अधिक माँगा जा रहा है।’’
‘‘क्या माँगा है ?’’

‘‘वे कहते हैं कि ब्याज में वस्त्र, भूषणों सहित महिमा मिलनी चाहिये।’’
महिमा के माथे पर त्योरी चढ़ गयी, परन्तु शीघ्र ही जब वह उतरी तो उसका मुख लज्जा से लाल हो गया और आँखें झुक गयीं। तब वह एकाएक उठी और अपने कमरे में चली गयी।
इस प्रकार दोनों का विवाह हुआ। अमृतलाल अपने काम से पाँच दिन की छुट्टी लेकर आया था और विवाह के एक दिन उपरान्त ही काम पर चला गया था।
दोनों समझ-समझाकर सन्तान-निरोध के कृत्रिम उपकरणों का प्रयोग कर रहे थे और इतने काल तक सन्तान होने से बचते चले आ रहे थे। दोनों समझते थे कि वे एक बहुत बड़ी मुहिम तय कर आये हैं, परन्तु बाबा के कथन ने महिमा के मस्तिष्क में हलचल मचा दी थी।

पति-पत्नी नीचे अपने कमरे में आ अपना बिस्तर खोल और सूटकेस खाली कर सामान लगाने लगे। यह काम कुछ अधिक नहीं था, इस कारण वे शीघ्र ही इससे अवकाश पाकर बैठे तो पत्नी ने उन विचारों की चर्चा चला दी जो बाबा के कथन से उसके मन पर बोझा डाल रहे थे। उसने कहा, ‘‘बाबा के कहने से तो यही समझ में आया कि हमें सन्तान की इच्छा करनी चाहिये थी ?’’
‘‘ओह ! तो तुम बाबा की बात पर विचार कर रही हो ?’’

‘‘हाँ।’’
‘‘छोड़ो इस बात को। एक बूढ़े एवं पिछली सदी के व्यक्ति की बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए। मैं तो यह विचार कर रहा हूँ कि इस प्रकार की बातों से जीवन नीरस हो जायेगा। हम एक-दो दिन यहाँ रहकर मनाली चल देंगे।’’
‘‘मैं तो आपके माता-पिता से परिचय बढ़ाना चाहती हूँ और अपने माता-पिता से भी मिलना चाहती हूँ।’’

‘‘क्या लाभ होगा ? तुम्हारे माता-पिता और भाई-बहन तो अभी दो मास हुए चण्डीगढ़ आकर तुमको मिल गये थे।’’
‘‘मैं तो यहीं रहूँगी।’’
‘‘यह तो तुम मेरे साथ अन्याय करोगी।’’
‘‘डेढ़ वर्ष तक तो आपके ही साथ रही हूँ, उसके बाद भी एक मास की छुट्टी नहीं मिल सकती क्या ?’’
‘‘मैं कभी छुट्टी नहीं चाहता।’’
‘‘मैं अपने डेढ़ वर्ष के जीवन का अवलोकन करना चाहती हूँ। बाबा के कथन ने मेरे मस्तिष्क में हलचल मचा दी है।’’
‘तब तो बहुत कठिन होगा।’’
‘‘यहाँ आपकी अमृतसर वाली बहनजी भी आने वाली हैं। उनसे भी तो मिलना है।’’
‘‘न जाने वह कब आयेंगी। उनको लिखा तो था कि हम यहाँ आ रहे हैं।’’

महिमा कुछ कहने ही वाली थी कि नौकर अमृतलाल की बड़ी बहन के अमृतसर से आने की सूचना लेकर आया। अतः दोनों उठ उसके स्वागत के लिए नीचे की मंजिल पर आ पहुँचे।
प्रज्ञा अपने तीन बच्चों के साथ आयी थी। उसे एक पृथक कमरे में ठहरा दिया गया। जब औपचारिक सुख-समाचार पूछा जा चुका तो महिमा और प्रज्ञा दोनों उठकर पुनः बाबा के कमरे में चली गयीं। वहाँ बाबा ने प्रज्ञा से पूछा लिया, ‘‘वेदप्रकाश नहीं आया ?’’
‘‘वह कल या परसों आयेंगे। मैंने उनको कहा था कि मुझे ले भी जायें और आपके दर्शन भी कर जायें।’’

‘‘तुम्हें अकेला भेज दिया है। साथ ही चला आता तो वह भी कुछ दिन यहाँ रह जाता।’’
‘‘वहाँ बहुत काम रहता है।’’
‘‘क्या काम है ?’’
‘‘वहाँ दो हायर सैकेण्डरी स्कूल, पाँच प्राईमरी स्कूल और एक कालेज के वे मुख्य प्रबन्धक हैं। घर का काम तो भगवान् भरोसे है, परन्तु इस सार्वजनिक कार्य से छुट्टी ही नहीं मिलती।’’
‘‘यह सब जल मथने के समान है। अच्छा, वेद आयेगा तो बात करूँगा।’’
तभी महिमा ने पूछ लिया, ‘‘बाबा ! क्या सन्तान करना आवश्यक है ?’’
‘‘यह समाज के प्रति मनुष्य का उत्तरदायित्व है। यदि सब ऐसा ही कहने लगें जैसा कि अमृत ने बताया है तो भारतीय समाज दीन-हीन और मूर्ख हो जायेगा। ऐसा प्राचीन काल में घट चुका है और फिर श्रेष्ठ सन्तान उत्पन्न करने के लिए समुद्र-मंथन करना पड़ता है।’’
‘‘इसका क्या अभिप्राय है ?’’

‘‘वह बात मैं अमृत के सम्मुख करूँगा। वास्तव में वह उसके समझने की ही है। स्त्रियाँ तो बेचारी गौण भूमिका ही निभा सकती हैं। क्रियाशील तो पुरुष ही होता है।’’
इस गौणत्व के उल्लेख से तो महिमा के मन में विद्रोह उठ खड़ा हुआ और वह अपने क्रियाशील बनने की योजना बनाने लगी।
बाबा ने बात बदल प्रज्ञा से पूछा, ‘‘प्रज्ञा ! अमृतसर से कैसे आयी हो ?’’
‘‘बाबा ! अम्बाला तक रेलगाड़ी से और वहाँ से चण्डीगढ़ और फिर यहाँ बस से।’’
इस पर महिमा ने पूछ लिया, ‘‘बहनजी ! पहले कभी चण्डीगढ़ आने का कष्ट नहीं किया। इस छोटी बहन को मिलने को जी नहीं किया न ?’’
‘‘जी तो बहुत करता रहा है, परन्तु भाभी ने कभी निमन्त्रण नहीं दिया। इस कारण बिन बुलाये जाने में संकोच होता था।’’
‘‘और यहाँ निमन्त्रण पर आयी हैं ?’’

महिमा का विचार था कि वह बहुत ही युक्ति-युक्त बात कर रही है, परन्तु प्रज्ञा ने सहज स्वभाव कह दिया, ‘‘यह तो माता-पिता का घर है। यहाँ जन्म हुआ, खेली-कूदी, बड़ी हुई। यहाँ तो बिन बुलाये आने में संकोच नहीं हुआ।’’
‘‘तो यहाँ से अमृतसर क्यों गयी थीं ?’’
‘‘माता-पिता ने वहाँ किसी कार्य-विशेष से भेजा था। वह वहाँ यथा शक्ति सुघड़ाई से कर रही हूँ। यहाँ भी परमात्मा ने किसी कार्य-विशेष से भेजा है। वह कार्य भी कुशलतापूर्वक कर रही हूँ। यदि आप किसी कार्य के निमित्त बुलातीं तो मैं वहाँ भी अवश्य आती।’’

महिमा इस परिवार में सबको युक्ति से बात करते सुन बहुत प्रभावित हुई थी। वह समझ रही थी कि इनके सम्पर्क में न आकर वह हानि ही उठा रही थी। इस समय सुन्दरी आ गयी और सबको भोजन के लिए चलने को कहने लगी।
ननद-भाभी उठीं और नीचे खाना खाने के कमरे में चली गयीं। भोजन के समय महिमा गम्भीर भाव में बैठी इस नये वातावरण पर विचार करने लगी थी।

भोजन के उपरान्त वह अपने माता-पिता से मिलने चली गयी। अमृत अपने मित्रों से मिलने गया और प्रज्ञा यात्रा की थकावट दूर करने अपने कमरे में चली गयी।

:2:


मध्याह्नोत्तर की चाय का प्रबन्ध बाबा के कमरे में ही कर दिया गया। यह विष्णुशरण की इच्छा थी। अमृत अपने मित्रों से और महिमा अपने माता-पिता से मिलकर लौट आयी थी। महिमा के साथ उसकी छोटी बहन गरिमा भी आ गयी थी। महिमा को यद्यपि उसके साथ चले आने पर विस्मय हुआ था; इस पर भी उसे प्रसन्नता थी।
बाबा के कमरे में चाय के लिए बैठे तो विष्णुशरण ने पूछ लिया, ‘‘तो गरिमा भी अपने जीजाजी से मिलने आयी है ?’’
‘‘बाबा ! मैं बहन से मिलने आयी हूँ। आपके दर्शन तो फोकट में ही हो रहे हैं।’’
विष्णुशरण ने बात बदलते हुए अमृत से पूछा, ‘‘तुम भी अपनी ससुराल गये थे ?’’

‘‘नहीं बाबा ! मैं मित्रों से मिलने गया था। कुछ से मिल आया हूँ और शेष से कल मिलूँगा।’ अपने मित्रों को चर्चा का विषय न बनाने के लिए यह बात बदलकर बोला, ‘‘बाबा ! यह कौन-सी पुस्तक चौकी पर रखी है ?’’
बाबा के सामने चौकी पर एक मोटी-सी पुस्तक पड़ी थी। बाबा ने कहा, ‘‘यह बाल्मीकीय रामायण है।’’
‘‘पर बाबा ! यह पुस्तक तो मैं अपने बाल्यकाल से आपको पढ़ते देख रहा हूँ। यह समाप्त ही नहीं होती अथवा आप उसको बार-बार पढ़ा करते हैं ?’’
‘‘बार-बार पढ़ता हूँ।’’
‘‘क्या रस आता है एक बात को बार-बार पढ़ने से ?’’
‘‘पढ़ने में तो रस नहीं आता। हाँ, पढ़कर चिन्तन करने में रस भी आता है और लाभ भी होता है।’’
‘‘बहुत विचित्र है ?’’
‘‘हाँ। तुमने कभी किया प्रतीत नहीं होता। इसी से रस और लाभ को तुम नहीं जान सकते।’’


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